बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-1 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र बीए सेमेस्टर-1 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-1 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र
प्रश्न- गान्धार शैली के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर -
गान्धार शैली
(प्रथम शताब्दी ई. से चौथी शती ई.)
भगवान बुद्ध की प्रतिमाएँ भी सर्वप्रथम मथुरा में ही पाई गईं। बुद्ध का सांकेतिक चित्रण अब तक होता रहा था पर स्थूल अंकन की प्रथा न थी। मथुरा की बुद्ध मूर्तियों में मुख पर उत्फुल्ल, शांति, करुणा का भाव और आत्मा के सौन्दर्य का अद्भुत सामंजस्य है। अंत: शक्ति से अनुप्राणित बुद्ध की दिव्य आकृति और चेष्टायें कलाकार की छेनी के संस्पर्श से आध्यात्मिक दीप्ति से उद्भासित हो उठी हैं। ये मूर्तियाँ पद्मासनासीन या खड़ी हुई अथवा अभय मुद्रा में हाथ उठाये दर्शायी गई हैं। जिन दिनों मथुरा में इस प्रकार की मूर्तियाँ बनाई जा रही थीं, उन्हीं दिनों कुषाण राजाओं की प्रेरणा और प्रोत्साहन से गान्धार (उत्तरी-पश्चिमी भारत) में भी एक नवीन कला - परिपाटी का प्रचलन हुआ। यूनानी, शक, मुस्लिम ईरानी आदि बाहरी प्रभावों से इधर की मूर्तिकला और वास्तुकला में विभिन्न देशीय तत्व दृष्टिगोचर हुए। इमारत बनाने के तरीकों में फर्क तो था ही मूर्तियों की बनावट और गढ़न में भी खास तौर से यूनानी स्थापत्य कला का असर दिखाई पड़ता था। रेखांकन, अंग-प्रत्यंगों के उभार और गति निदर्शन में ये मूर्तियाँ इतनी यथार्थ और सजीव हैं कि प्रेक्षक को व्यक्तित्व परिदर्शन और सृजन की प्रक्रिया एकाकार सी प्रतीत होती थी। गान्धार कला में यूनानी कला की भाँति अधिक स्फूर्ति, यथार्थ कल्पना और स्पष्ट, सुदृढ भावांकन की प्रवृत्ति लक्षित हुई, किन्तु भावों की गहराई की दृष्टि से कला निम्न स्तर पर आ गई थी। विषय में गहराई से अनुभव करने और उसकी बारीकियों को आत्मसात् करने में मध्यदेशीय कलाकारों से वे बहुत पीछे थे।
गान्धार - कला में मानव के चरम सत्य का साक्षात्कार हुआ पर अनुभूति में उतनी तीव्रता न थी जो आन्तरिक स्वरूप में रम सकती। अतः निदान मूर्ति की चरम, गूढ़ भावाभिव्यक्ति और एकात्मकता का लोप होता गया। गान्धार शैली की मूर्तियाँ भारत में तक्षशिला, पेशावर, अफगानिस्तान, जलालाबाद, सीमाप्रांत और फारस तक में उपलब्ध हुई हैं, लेकिन यह कला अधिक दिन तक जीवित न रह सकी। गान्धार शैली में जो पार्थिव तत्व प्रबल हो गये थे वे कालान्तर में आध्यात्मिक भाव में परिणत होते गए। गान्धार कला एक प्रसिद्ध प्राचीन भारतीय कला है। इस कला का उल्लेख वैदिक तथा बाद के संस्कृत साहित्य में मिलता है। सामान्यत: गान्धार शैली की मूर्तियों का समय पहली शती ई. से चौथी शती ई. के मध्य का है। इस शैली की श्रेष्ठतम रचनायें 50 ई. से 150 ई. के मध्य की मानी जा सकती हैं। गांधार कला की विषय-वस्तु भारतीय थी, परन्तु कला - शैली यूनानी और रोमन थी। अतएव गांधार को 'ग्रीको रोमन', 'ग्रीको बुद्धिस्ट' या 'हिन्दू यूनानी कला भी कहा जाता है। इसके प्रमुख केन्द्र जलालाबाद, हड्डा, बामियान, स्वातघाटी और पेशावर थे। इस कला में पहली बार बुद्ध की सुन्दर मूर्तियाँ बनाई गईं। इनके निर्माण में सफेद और काले रंग के पत्थर का प्रयोग किया गया। गान्धार कला को महायान धर्म के विकास से प्रोत्साहन मिला। इसकी मूर्तियों में मांसपेशियाँ स्पष्ट झलकती हैं और आकर्षक वस्त्रों की सलवटें स्पष्ट परिलक्षित हैं। इस शैली के शिल्पियों द्वारा वास्तविकता पर कम ध्यान देते हुए बाह्य सौन्दर्य को मूर्तरूप देने का प्रयत्न किया गया। इस समय की मूर्तियों में भगवान बुद्ध यूनानी देवता अपोलो के समान दृष्टव्य हैं। इस शैली में उच्च कोटि की नक्काशी का प्रयोग करते हुए प्रेम, करुणा, वात्सल्य आदि विभिन्न भावनाओं एवं अलंकारिकता का सुन्दर सम्मिश्रण प्रस्तुत किया गया है। इस शैली में आभूषण का प्रयोग अत्यधिक किया गया है। इस शैली में सिर के बाल पीछे की ओर मोड़कर एक जूड़ा बना दिया गया है, जिससे मूर्तियाँ भव्य एवं सजीव लगती हैं। कनिष्क के काल में गांधार कला का विकास अत्यधिक तीव्रता से हुआ। भरहुत एवं सांची के कनिष्क द्वारा निर्मित स्तूप गांधार कला के उदाहरण हैं।
भारतीय और यूनानी शैली के मिश्रण से भारत में गांधार शैली का जन्म हुआ। इसका कारण यह है कि गांधार भूमि में भारतीय और यूनानी पर्याप्त समय-समय पर साथ-साथ रहे। तक्षशिला के मंदिरों के स्तम्भों तथा दीवारों में सीमान्त क्षेत्र के भवनों, वेशभूषा इत्यादि में यह मिश्रण परिलक्षित होता है। मूर्तिकला में भारतीय शैली यद्यपि अपनी विशेषताएँ रखती है, परन्तु भारतीय विषय-वस्तु, सजावट, आकार-प्रकार, भाव-भंगिमा में यूनानी प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित हैं। भारत के पश्चिमी प्रदेशों के नगरों में तक्षशिला, पुरुषपुर आदि में ये उदाहरण मिलते हैं। यहाँ की मूर्तियाँ भारतीय होने पर भी उनकी सजावट, वेशभूषा, श्रृंगार, केश विन्यास यूनानी होते हैं। जैसे साधनामग्न बुद्ध की नासिका उठी हुई और घुंघराले केश हैं। ऐसी मूर्तियों को गांधार शैली की मूर्तियाँ कहा जाता है। गांधार शैली में शरीर का यथार्थवादी चित्रण किया गया है। पश्चिमी प्रभाव के होते हुए भी गांधार कला अनन्य रूप से भारतीय बनी रही और उसमें बुद्ध तथा बौद्ध धर्म की प्रधानता रही। उनमें मूर्तियों, प्रतीक चिन्ह, सुडौलता, विशालता, भव्यता, रंजकता सौन्दर्य की प्रमुखता होने लगी थी। बुद्ध बोधिसत्व, अवलोकितेश्वर, मंजूश्री, यक्ष, कुबेर की मूर्तियाँ इसी शैली में बनायी गईं। इनके साथ वृक्ष, पशु, धर्म, चक्र आदि के भी अंकन गांधार शैली में होते थे।
गांधार शैली की विशेषतायें - गांधार शैली की विशेषतायें निम्नवत् हैं -
(1) मानव शरीर की सुन्दर रचना तथा मांसपेशियों का सूक्ष्मता से अंकन।
(2) पारदर्शक वस्त्र और उनकी सलवटें।
(3) अनुपम नक्काशी।
(4) गांधार शैली में बुद्ध के जीवन की घटनायें ही प्रमुख विषय रहीं।
(5) जातक कथाओं का चित्रण।
(6) बुद्ध और बोधिसत्व की मूर्तियों की अधिकता।
(7) शैली पर यूनानी - भारतीय शैली का मिश्रित प्रभाव है।
(8) गांधार शैली की मूर्तियों में शरीर की आकृति को हमेशा यथार्थ रूप में दर्शाया गया है।
(9) बुद्ध की मूर्तियों का मुख ग्रीक देवता अपोलो की भाँति है।
(10) यथार्थवादी चित्रण किया गया है।
(11) मूर्तियों पर प्रतीक - चिन्ह, सुडौलता, भव्यता, रंजकता, सौन्दर्य, विशालता स्पष्ट परिलक्षित हैं।
(12) वृक्ष, पशु, धर्म, चक्रं आदि का अंकन सजीवता से किया गया।
(13) तक्षशिला के मंदिरों के स्तम्भों, दीवारों में तथा सीमान्त क्षेत्र के भवनों, वेशभूषा इत्यादि में भारतीय और यूनानी शैली के मिश्रण स्पष्ट परिलक्षित हैं।
(14) कनिष्क के काल में गांधार कला का विकास अत्यधिक तीव्रता से हुआ।
(15) अलंकारिकता का सुन्दर सम्मिश्रण है।
(16) गांधार शैली में प्रेम, करुणा, वात्सल्य आदि विभिन्न भावनाओं का सजीव स्वरूप स्पष्टतया दृष्टिगोचर है।
(17) बाह्य सौन्दर्य को मूर्तिरूप देने का प्रयत्न किया गया है।
(18) गांधार कला को महायान धर्म के विकास से प्रोत्साहन मिला।
(19) बुद्ध की मूर्तियों के निर्माण में सफेद एवं काले रंग के पत्थर का प्रयोग किया गया। (20) बाह्य सौन्दर्य को मूर्तरूप प्रदान किया गया।
विशेषताओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि गांधार शैली के अन्तर्गत बुद्ध की मूर्तियों को इतना सुन्दर बनाने का प्रयत्न किया गया था कि वे (मूर्तियाँ) यूनानियों के सौन्दर्य देवता अपोलो की भांति दृष्टव्य हैं। ए. एल. बाशम ने लिखा है, "गान्धार शिल्पियों ने यूनानी रोमन संसार के देवताओं को अपना आदर्श माना, कभी-कभी उनकी प्रेरणा पूर्णतया पश्चिमी प्रतीत होती है। अत्यधिक सुन्दर मूर्तियों के निर्माण के कारण एक समय ऐसा था जब गांधार मूर्तिकला को भारतीय कलाओं में श्रेष्ठतम तथा अन्य सभी मूर्ति कलाओं की जननी कहा जाता था।" परन्तु अब इसे स्वीकार नहीं किया जाता। मथुरा और अमरावती शैलियों का विकास स्वतन्त्र रूप से हुआ था। इसके अन्तर्गत श्रेष्ठतम कलाकृतियों का निर्माण हुआ। गुप्तकालीन मूर्तिकला पर गांधार शैली के स्थान पर मथुरा शैली का प्रभाव स्वीकार किया जाता है।
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